अगर आपसे पूछा जाए कि दिवाली क्यों मनाई जाती है तो आपका जवाब होगा कि जब भगवान राम चौदह वर्ष का वनवास काटकर अयोध्या वापिस आये थे तब उनके आने की खुशी में दीप जला कर लोगों ने खुशियां मनाई थी और तभी से हर साल दिवाली मनाई जाने लगी। बाद मंे पटाखे भी फोड़े जाने लगे।
यह बात बिल्कुल सही है। मगर दीवाली का मूल उददेश्य क्या था इस बात पर किसी ने कभी गौर नहीं किया। दीवाली की आतिशबाजी में हम कहां भटक गए और मुख्य उद्देश्य छोड़कर विपरीत आचरण करणे लगे तो हमारे चेतनाहीन कुकृत्यों ने वातावरण को जहरीली गैस चौंबर दिया।
कुछ बातों को जानेंगे तो सनातनी परम्परा पर सबको बडा गर्व होगा। दीवाली को श्रीराम के अयोध्या लौटने की खुशी को एकमात्र खुशी से जोड़कर देखेंगे तो यह सही नहीं होगा। दिवाली पर आतिशबाजी और पटाखे फोड़ने वालों को नहीं पता कि सनातन और श्रीराम का जन्म तो हजारों हजार साल पुराना है और तब तक तो पटाखों और आतिशबाजी का अस्तित्व भी नहीं हुआ था। ऐसे में दीया जलाना तो बिल्कुल सही है मगर पटाखे फोड़ना सनातनी परम्परा नहीं है।
साल मे दो बड़ी ऋतु सर्दी और गर्मी आती हैं। इन दोनों ऋतुओं के संगम समय पर हमारे देश मे दो बहुत ही मह्त्वपूर्ण त्योहार मनाए जाते हैं।
"गर्मी से सर्दी की तरफ कदम बढते समय- दीपावली,
सर्दी से गर्मी की तरफ कदम बढते समय- होली।
और दीपावली अमावस्या की रात को मनाई जाती है तो
होली पूर्णिमा की रात को।"
सनातन के गूढ रहस्यों को समझ सकें तो पता चलेगा कि हमारे हजारों साल पहले हमारे पूर्वज कितने महान थे।
दीपावली से दो माह पहले वर्षा के होते हैं। जो भयंकर गर्मी के बाद शुरू होती है। जमीन और पाताल सब गीला हो जाता है। हवा में भी भयंकर नमी आ जाती है जिससे घर के भीतर भी नमी पहुंच जाती है। कपड़ों में भी नमी हो जाती है। इस नमी से रोगाणुओं की भरमार हो जाती है। कीट, पतंगे, मच्छर, मक्खी जीना दूभर कर देते हैं।
नवरात्र जाते ही दीपावली तक का समय वह होता है जब आकाश में सूर्य और अन्य ग्रहों की स्थिति भी परिवृत्ति होने लगती है। सूर्य की तेज रोशनी यानि रश्मियों में विशेषता मैडिकेटिड होती है।
मौसम में नमी होने परघर के तमाम कपड़े, बिस्तर को बाहर धूप में डाला जाता है ताकि रोणाणुओं को पैदा करने वाली बदबू खत्म. हो जाए और सर्दी के मौसम मे प्रयोग होणे वाले वस्त्र और बिस्तर रोगाणु मुक्त हो जाएं तथा गर्मियों में प्रयोग किये गए कपड़ो को धूप लगाकर रोगाणु मुक्त कर संदूकों मे रखा जा सकें। इसी के साथ साथ अपने मकान व अन्य भवनों व आसपास के क्षेत्र की साफ सफाई की जाती है।
इस दिन लोग अपने घरों के अंदर बाहर दिवारों के आले यानि बीच में कहीं जगह पर कम संख्या में दीपक जलाते हैं। इसके साथ साथ घर के बाहर गंदे पानी के संग्रह के निकट व घर से बाहर निकलने वाले गंदे पानी की मोरी पर भी दीपक लगाते थे इसे मोरी दिया कहा जाता है।
दीपावली के की रात सभी लोग अपने अपने घरों के अंदर और बाहर, मुंढेर पर दीपक जला कर रखते हैं। दीपक में रुई की बत्ती और गाय का घी या सरसों का कड़वा तेल डाला जाता था। घर में देशी घी में घरेलू पकवान बनते थे। जोत पूजा जो एक प्रकार से छोटा सा हवन होता है। मतलब कि गाय के गोबर के उपले जो चूल्हे में सुलग रहे थे। उन दहकते हुए बिना घुंए के अंगारों को एक दीपक के सामने रखा जाता था। दीपक के पास पानी का लौटा और कुछ अनाज रखा जाता है। उसके बाद चम्मच से उन अंगारों पर थोड़ा थोड़ा घी डाला जाता है। इससे घर मे घी के सुगंध वाला धुआं हो जाता है। और जैसे ही अंगारों से अग्नि प्रज्जवलित होती है तो घर मे बनाए गए पकवान और घी का भोग उस हवन में लगाया जाता है।
अब सभी अपने घरों से बाहर निकलते हैं। सारी बस्ती में घी से जलने वाले दीपक और घरों मे हवन के घुएं से सुगंध भरी हवा होती है।
वृक्ष से निकले सिबतड़े को घी या तेल में भीगने रखा था उसे बाहर निकाला जाता है और उसे उस समय चरखे के ताकू लोहे का वह बड़ा सूआ जिस पर सूत काता जाता था। वह दोनों तरफ से नुकीला होता है उसके एक सिरे को लम्बी लाठी या डंडे में खोंसा जाता है व दूसरे सिरे पर सिबतड़े को लगा कर आग लगाई जाती है। यहां यह भी विचारणीय है कि यह आग ऊपर को रहती है आग और लाठी के बीच में ताकू का इतना फर्क रहता है कि आग लाठी को नहीं जलाती।
इसके बाद यह एक ऊंची मशालनुमा बन जाती है जिसे समझदार बच्चे और युवा लेकर टोलियों में गलियों में घूमते हैं, हिड़ो हिड़ो कहते हुए अपनी हीड़ो एक दूसरे से उपर की तरफ करते हुए।
अब गांव-बस्ती की यह टोलियां देर रात तक गलियों मे व बस्ती के बाहरी भाग में घूमती थी। खेल का खेल और वातावरण शुद्धि का एक महान उद्देश्य पूरा हो जाता था। हवा में जितने रोगाणु, कीट पतंगे है सभी रोशनी में आ कर खत्म हो जाती थी हवा में भरपूर शुद्ध ऑक्सीजन हो जाती थी। अमावस्या की रात काली होती है घनघोर अंधकार होता है। ऐसे मे थोड़ी सी रोशनी में भी कीट पतंगे तेजी से आते हैं और दीपक या हीड़ो की लौ में जल कर भस्म हो जाते हैं। अगले दिन घरों में खाना नहीं बनता था। गांव के मंदिर में समूहिक खाना बनता था जिसे अन्नकूट का प्रसाद कहा जाता था।
दीपावली की रात को लोग अपने घरों में घी मे पका गरिष्ठ खाना खाते थे। इसलिए अब पाचन तंत्र को दुरुस्त करने के लिए कढी औषधीय खाना होता था। कढ़ी हमारे समाज का वह व्यंजन है जो एक महत्वपूर्ण आयुर्वेदिक औषधि है।
यह गाय या भैंस के दूध से दही और दही से मक्खन निकालने के बाद बची छाछ से बनती है। यह भी यहां परंपरागत घी तैयार करने का भी औषधीय तरीका था।
सुबह जरुरत के दूध के उपयोग के बाद जो बच जाता था उस दूध को मिट्टी के घड़े नुमा पात्र यानि कढोणी में डालकर हारे में धीमी आंच पर दिनभर गर्म किया जाता था, जो शाम तक पककर लाल हो जाता था।
शाम को इस पके हुए दूध में शाम के दूध को गर्म कर अन्य पात्र बिलोणी में डालकर जामण लगा कर दही जमने के लिए रात भर रख दिया जाता था।
प्रातः चार बजे उठकर घर की सीनियर गृहणियां एक कोने में बिलोणी में झेणी डालकर मथने लगती थी तो दूसरे कोने में चक्की पर दूसरी महिला अनाज पीसने लगती। दोनों की कसरत होती और घर का काम भी। इस प्रकार दही से मक्खन और छाछ तैयार होते यह मक्खन भी पौष्टिक औषधि था तो छाछ भी।
घर में उपयोग के बाद बची छाछ को एक अन्य दूसरे बर्तन में ढक कर रख दिया जाता था दो तीन दिन के बाद जब यह खट्टी हो जाती थी तब घर की चक्की से पीसे चने के छिलके समेत बेसन से हारे में मिट्टी के पत्र में धीमी आंच पर कढ़ी बनती थी।
मंदिर में भी छाछ को हफ्तों पहले संग्रह किया जाता था अन्नकूट वाले दिन उसे लोहे की कढ़ाई में कितने ही प्रकार की सब्जियां डालकर साधारण मसालों से धीमी आंच पर तैयार किया जाता था।
इसी प्रकार अपने खेतों से प्राप्त साग सब्जियां, चावल, बाजरा, मूंग, मोठ तैयार होते थे। यह अन्नकूट का प्रसाद सभी मिलकर चाव से खाते थे।
इस तरह की दीपावली तो भगवान राम के जन्म से भी बहुत पहले से मनाई जाती रही है। यह सुखद संयोग है कि इस दिन भगवान राम अयोध्या आये थे जो हमारी दीवाली की खुशी को दुगना कर देते हैं। इसलिए दीपावली यानि वातावरण, पर्यावरण शुद्धि। अन्नकूट पाचन तंत्र शुद्धि के लिए सदियों से हमारी परंपरा का हिस्सा रही है।